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गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मन की व्यथा

मन की व्यथा

















आज फिर उन बातों को हवा दे गई
जिसे दवा रखा था हृदय के किसी कोने में 
आज फिर उसे जगा गई 
मन शांत, तन शिथिल, धड़कन तेज़ और 
शिलाओं को क्षणभंगु का आभास करा  गई
उनकी मार्ग-दर्शन को ज्ञातव्य न करने के लिए 
मेरी उन्मुद चेतना सुला गई 
सोचा करें शिकायत, पर निशा बीती 
प्रभाकर आया और उनकी खुशियों 
की कामनाएं दिल से निकल गई 
मुरली मनोहर का इस तृण ने ध्यान किया 
हो गगनचुम्बी पद उनकी यही अरमान किया 
तृण की व्यथा से व्यापक, देवी उनको 
रुब-रु करा गई
आज फिर उन बातों को हवा दे गई  



पाठको से निवेदन है कि "मन की व्यथा"  कविता  कैसी लगी, अपनी राय टिपण्णी करके अवस्य बताएं l  




15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब लिखा भाई अति सुंदर मन की व्यथा की कशिश भी अलग ही होती हैं। (बाबा)

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