मन की व्यथा |
आज फिर उन बातों को हवा दे गई
जिसे दवा रखा था हृदय के किसी कोने में
आज फिर उसे जगा गई
मन शांत, तन शिथिल, धड़कन तेज़ और
शिलाओं को क्षणभंगु का आभास करा गई
उनकी मार्ग-दर्शन को ज्ञातव्य न करने के लिए
मेरी उन्मुद चेतना सुला गई
सोचा करें शिकायत, पर निशा बीती
प्रभाकर आया और उनकी खुशियों
की कामनाएं दिल से निकल गई
मुरली मनोहर का इस तृण ने ध्यान किया
हो गगनचुम्बी पद उनकी यही अरमान किया
तृण की व्यथा से व्यापक, देवी उनको
रुब-रु करा गई
आज फिर उन बातों को हवा दे गई
पाठको से निवेदन है कि "मन की व्यथा" कविता कैसी लगी, अपनी राय टिपण्णी करके अवस्य बताएं l
Bohot sundar
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंKhubshurt
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंawesome...👍👍👍
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंAti sunder, aap aese hi likte rahen.
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंDil ko chu gya bhai...
जवाब देंहटाएंFir likhne ka fal mil gaya
हटाएंBahut achha likha hai
जवाब देंहटाएंThanks ji
हटाएंबहुत खूब लिखा भाई अति सुंदर मन की व्यथा की कशिश भी अलग ही होती हैं। (बाबा)
जवाब देंहटाएंThanks bhai
हटाएंachha likha
जवाब देंहटाएं